हिन्दी भाषा – परिचय एवं वर्ण-विचार
मनुष्य सबसे प्रथम एक शिशु के रूप में अवतरित होता है, धीरे-धीरे वह अपने भावों को व्यक्त करना सीखता है। जब उसे भूख लगती है, प्यास लगती है या कुछ लेना चाहता है, तब वह संकेत द्वारा उसे व्यक्त करता है। यह अभिव्यक्ति ही उसकी प्रथम भाषा होती है। धीरे-धीरे वह बोलना सीखता है, जो शब्द उसके मुँह से निकलते है उन शब्दों के द्वारा वह अपनी भाषा को व्यक्त करना सीखता है।
मन के भावों को प्रकट करने को भाषा कहते है। भाषा उन ध्वनि संकेतों को कहते है जो मानव से मिलकर परस्पर भाव-विचार प्रकट करने का माध्यम बनते है। हम अपने विचार दो प्रकार से प्रकट कर सकते है – बोलकर (मौखिक) या लिखकर (लिखित)। दोनों ही भावों का अपना-अपना महत्व है और दोनों के ही बिना हमारा काम नहीं चल सकता। फिर भी बोलना और लिखना दोनों ही एक दूसरे से संबंधित होते है, हम जैसा बोलते है वैसा ही लिखते है इसिलिये कहा जाता है कि हमारा उच्चारण हमेशा स्पष्ट होना चाहिये। भाषा के इसी उच्चारण को निश्चित रूप देने के लिये ही लिखित रूप प्रदान किया गया है, जिसे लिपि कहते है। हिन्दी का मूल स्त्रोत संस्कृत भाषा है। हिन्दी एवं संस्कृत दोनों ही भाषाओं की लिपि देवनागरी है। आज हिन्दी जिस रूप में बोली जाती है वह खड़ी बोली का परिष्कृत रूप है।
बोलने ओर सुनने में जो ध्वनि है उसी को लिखने और पढने में वर्ण कहा जाता है। अगर ओर सरल शब्दों में कहें तो वह छोटी से छोटी ध्वनि जिसके टुकडे नहीं किये जा सकते है उसे अक्षर या वर्ण कहते है। सभी वर्णों के व्यवस्थित समुह को वर्णमाला कहते है।
वर्ण मूल रूप से दो प्रकार के होते हैः- स्वर तथा व्यंजन
जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस, कंठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है, उन्हें 'स्वर' कहा जाता है तथा जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस, कंठ, तालु आदि स्थानों से रुककर निकलती है, उन्हें 'व्यंजन' कहा जाता है। व्यंजनों का उच्चारण हम स्वर की सहायता से करते है। अनुस्वार एवं विसर्ग अयोगवाह कहलाते है।
मन के भावों को प्रकट करने को भाषा कहते है। भाषा उन ध्वनि संकेतों को कहते है जो मानव से मिलकर परस्पर भाव-विचार प्रकट करने का माध्यम बनते है। हम अपने विचार दो प्रकार से प्रकट कर सकते है – बोलकर (मौखिक) या लिखकर (लिखित)। दोनों ही भावों का अपना-अपना महत्व है और दोनों के ही बिना हमारा काम नहीं चल सकता। फिर भी बोलना और लिखना दोनों ही एक दूसरे से संबंधित होते है, हम जैसा बोलते है वैसा ही लिखते है इसिलिये कहा जाता है कि हमारा उच्चारण हमेशा स्पष्ट होना चाहिये। भाषा के इसी उच्चारण को निश्चित रूप देने के लिये ही लिखित रूप प्रदान किया गया है, जिसे लिपि कहते है। हिन्दी का मूल स्त्रोत संस्कृत भाषा है। हिन्दी एवं संस्कृत दोनों ही भाषाओं की लिपि देवनागरी है। आज हिन्दी जिस रूप में बोली जाती है वह खड़ी बोली का परिष्कृत रूप है।
बोलने ओर सुनने में जो ध्वनि है उसी को लिखने और पढने में वर्ण कहा जाता है। अगर ओर सरल शब्दों में कहें तो वह छोटी से छोटी ध्वनि जिसके टुकडे नहीं किये जा सकते है उसे अक्षर या वर्ण कहते है। सभी वर्णों के व्यवस्थित समुह को वर्णमाला कहते है।
वर्ण मूल रूप से दो प्रकार के होते हैः- स्वर तथा व्यंजन
जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस, कंठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है, उन्हें 'स्वर' कहा जाता है तथा जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस, कंठ, तालु आदि स्थानों से रुककर निकलती है, उन्हें 'व्यंजन' कहा जाता है। व्यंजनों का उच्चारण हम स्वर की सहायता से करते है। अनुस्वार एवं विसर्ग अयोगवाह कहलाते है।
- स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ
- अनुस्वार- अं
- विसर्ग- अ:
- व्यंजन-
क,ख, ग, घ, ङ
च, छ, ज, झ, ञ
ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़
त, थ, द, ध, न
प, फ, ब, भ, म
य, र, ल, व
श, ष, स, ह
च, छ, ज, झ, ञ
ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़
त, थ, द, ध, न
प, फ, ब, भ, म
य, र, ल, व
श, ष, स, ह
- संयुक्त व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र
चंद्रबिन्दु के स्थान पर अनुस्वार की अशुद्धियाँ
संधि के अज्ञान के कारण वर्तनी की अशुद्धियाँ
विशेषणों की रचना
क्रिया
वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्यत काल
काल भेद की तालिका
वाच्य
कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाने की विधि
अव्यय
क्रियाविशेषणों की रचना
सम्बन्धबोधक
समुच्चयबोधक (योजक)
विस्मयादिबोधक
सन्धि: स्वर सन्धि
व्यंजन संधि
विसर्ग संधि
समास
तत्पुरुष समास
कर्मधारय एवं द्विगु समास
द्वन्द्व समास एवं बहूब्रीहि समास
उपसर्ग
प्रत्यय
क्रिया
वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्यत काल
काल भेद की तालिका
वाच्य
कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाने की विधि
अव्यय
क्रियाविशेषणों की रचना
सम्बन्धबोधक
समुच्चयबोधक (योजक)
विस्मयादिबोधक
सन्धि: स्वर सन्धि
व्यंजन संधि
विसर्ग संधि
समास
तत्पुरुष समास
कर्मधारय एवं द्विगु समास
द्वन्द्व समास एवं बहूब्रीहि समास
उपसर्ग
प्रत्यय